ईद-उल-अजहा, जिसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है, इस्लामी धर्म का एक प्रमुख त्योहार है। यह पर्व ईद-उल-फितर के लगभग 70 दिनों बाद मनाया जाता है और हिजरी कैलेंडर के 12वें महीने ज़ुल-हिज्जा की 10वीं तारीख को पड़ता है। इस दिन को इस्लामी समुदाय में कुर्बानी के पर्व के रूप में मनाया जाता है और इसे बलिदान का त्योहार भी कहा जाता है।
त्योहार का धार्मिक महत्व
ईद-उल-अजहा की उत्पत्ति पैगंबर इब्राहीम (अब्राहम) की कथा से जुड़ी हुई है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, अल्लाह ने इब्राहीम को उनके पुत्र इस्माइल (इशमाइल) की बलि देने की आज्ञा दी थी। इब्राहीम ने अल्लाह के आदेश का पालन करते हुए अपने पुत्र की बलि देने का निर्णय लिया। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने पुत्र की बलि देने के लिए छुरा चलाया, अल्लाह ने एक दुम्बे को भेज दिया और इस्माइल की जगह उस दुम्बे की बलि दी गई। इस घटना के माध्यम से अल्लाह ने इब्राहीम की श्रद्धा और विश्वास की परीक्षा ली और उनके समर्पण को स्वीकार किया।
पर्व की तैयारी और रिवाज
ईद-उल-अजहा के अवसर पर मुस्लिम समुदाय के लोग विशेष तैयारियां करते हैं। त्योहार के दिन लोग सुबह-सुबह उठकर स्नान करते हैं और नए कपड़े पहनते हैं। फिर मस्जिद या ईदगाह में विशेष नमाज (सलात अल-ईद) अदा की जाती है। नमाज के बाद इमाम खुतबा (प्रवचन) देते हैं, जिसमें बलिदान और समाजसेवा के महत्व पर जोर दिया जाता है।
तीन हिस्सों में बाटा जाता है मांस
नमाज के बाद कुर्बानी (बलि) की रस्म अदा की जाती है। कुर्बानी के लिए अक्सर बकरा, भेड़, गाय या ऊंट की बलि दी जाती है। बलि के मांस को तीन हिस्सों में बांटा जाता है – एक हिस्सा गरीब और जरूरतमंदों के लिए, दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए, और तीसरा हिस्सा अपने परिवार के लिए रखा जाता है। इस प्रक्रिया से समाज में भाईचारे और समानता का संदेश प्रसारित होता है।
समाजिक और सांस्कृतिक पहलू
ईद-उल-अजहा केवल धार्मिक पर्व ही नहीं, बल्कि समाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इस दिन परिवार और दोस्तों के बीच मेल-मिलाप होता है। लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और साथ मिलकर भोजन करते हैं। विशेष पकवान और मिठाइयां तैयार की जाती हैं, जिनमें बिरयानी, कबाब, सेवई और तरह-तरह के मीठे व्यंजन शामिल होते हैं।
- बकरीद पर कुर्बानी के नियम
बकरीद पर कुर्बानी के कुछ विशेष नियम और शर्तें होती हैं जिन्हें इस्लामी शरिया (कानून) के अनुसार पालन किया जाता है। कुर्बानी का सही समय ईद-उल-अजहा की नमाज के बाद से शुरू होता है और यह तीन दिन तक चलता है.
पहला दिन: ईद के दिन की नमाज के बाद से सूर्यास्त तक।
दूसरा दिन: अगले दिन फज्र (सुबह की) नमाज के बाद से सूर्यास्त तक।
तीसरा दिन: तीसरे दिन फज्र (सुबह की) नमाज के बाद से सूर्यास्त तक। - कुर्बानी के लिए चुना गया जानवर स्वस्थ होना चाहिए। जानवर में अंधापन या आँख की बड़ी बीमारी, लंगड़ापन, अत्यधिक दुबला या कमजोर, कान, पूंछ या नाक का कटा, गंभीर बीमारी नहीं होनी चाहिए। बकरा/बकरी एक साल या उससे अधिक उम्र का होना चाहिए।
- कुर्बानी का तरीकाः जानवर को नम्रता और दया के साथ जमीन पर लिटाना चाहिए। कुर्बानी के समय “बिस्मिल्लाह, अल्लाहू अकबर” (अल्लाह के नाम से, अल्लाह सबसे बड़ा है) कहना चाहिए। जानवर की गर्दन को तेज धार वाले चाकू से एक ही बार में काटना चाहिए जिससे उसकी मृत्यु जल्दी और कम दर्द में हो।
- कुर्बानी के अन्य नियम
कुर्बानी केवल उन्हीं लोगों पर फर्ज (अवश्यक) है जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं।
कुर्बानी का मांस किसी भी जाति, धर्म या वर्ग के व्यक्ति को दिया जा सकता है।
कुर्बानी का मांस तीन दिन के भीतर बांट देना चाहिए।