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Elections में लगातार हार और अपनों के बीच खटास, क्या बसपा में नई जान फूंक पाएंगी मायावती? यहां पढ़ें पूरा अर्टिकल

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बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सियासी जमीन लगातार खिसक रही है। एक समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाली यह पार्टी आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। हाल ही में बसपा प्रमुख मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी से बाहर कर दिया, जिससे यह सवाल उठने लगे हैं कि बसपा का भविष्य क्या होगा?

बसपा की गिरती सियासी पकड़

लोकसभा चुनाव 2024 में बसपा ने 488 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई। यूपी में भी पार्टी ने 79 सीटों पर चुनाव लड़ा, मगर कोई सफलता नहीं मिली। 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद बसपा को सिर्फ 10 सीटें मिली थीं। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा को महज एक सीट पर जीत मिली और वोट शेयर भी गिरकर 12.88% रह गया।

एक समय यूपी की राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाली बसपा आज पूरी तरह हाशिये पर है। दलित, मुस्लिम और पिछड़े वर्गों में उसकी पकड़ लगातार कमजोर होती जा रही है। दूसरी पार्टियां, खासकर भाजपा, कांग्रेस और सपा, बसपा परंपरागत वोटबैंक को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही हैं।

आकाश आनंद को बाहर करने के मायने

मायावती ने आकाश आनंद को उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़ाया था, लेकिन अचानक उन्हें पार्टी से निकाल दिया। यह फैसला तब आया जब बसपा को एक युवा नेतृत्व की जरूरत थी। मायावती ने अपने इस कदम को कांशीराम की विरासत से जोड़ते हुए कहा कि वह परिवारवाद को बढ़ावा नहीं देंगी। हालांकि, इस फैसले के पीछे सियासी कारण भी छिपे हो सकते हैं।

आकाश आनंद को बाहर करने का सबसे बड़ा असर यह हुआ कि बसपा के युवा कार्यकर्ताओं में असमंजस की स्थिति पैदा हो गई। आकाश को पार्टी से जोड़ने से दलित युवाओं में एक नई ऊर्जा आई थी, लेकिन अब उनके बाहर होने से बसपा की युवा अपील कमजोर हो सकती है।

चंद्रशेखर, अखिलेश और राहुल गांधी की चुनौती

बसपा के कमजोर होने का सबसे बड़ा फायदा चंद्रशेखर आजाद को मिल रहा है। आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर लगातार दलित मुद्दों को उठाकर अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं। वहीं, कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी दलित वोटबैंक को साधने में जुटे हैं।

अखिलेश यादव ने पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) गठजोड़ बनाकर बसपा के वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिश की है। कांग्रेस भी दलितों को आरक्षण और संवैधानिक अधिकारों के मुद्दे पर जोड़ने में लगी है। ऐसे में बसपा के सामने बड़ी चुनौती है कि वह अपने कोर वोटबैंक को कैसे बचाए।

क्या मायावती फिर से सक्रिय होंगी?

मायावती पिछले कुछ वर्षों से सार्वजनिक रूप से कम सक्रिय रही हैं। वह सड़कों पर आंदोलन करने के बजाय सियासी समीकरणों पर ज्यादा भरोसा करती हैं। 2007 में उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए दलित-ब्राह्मण गठजोड़ बनाया और सत्ता में आईं, लेकिन भाजपा के उदय के बाद यह रणनीति अब कारगर नहीं दिख रही है।

अगर बसपा को फिर से मजबूत बनाना है तो मायावती को जमीनी स्तर पर उतरना होगा। उन्हें युवाओं को जोड़ने और पार्टी कैडर को दोबारा सक्रिय करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। विपक्षी दलों की तरह उन्हें भी दलितों के मुद्दों पर खुलकर बोलना होगा।

क्या बसपा फिर से उभर पाएगी?

बसपा आज भी दलित राजनीति की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन उसका जनाधार कमजोर हो रहा है। मायावती के पास अब ज्यादा समय नहीं है। अगर वह सही समय पर सही रणनीति नहीं अपनाती हैं, तो बसपा की स्थिति और खराब हो सकती है।

आने वाले चुनाव बसपा के लिए बेहद अहम हैं। मायावती को तय करना होगा कि वह संघर्ष का रास्ता अपनाकर बसपा को फिर से खड़ा करेंगी या पुरानी रणनीतियों पर ही कायम रहेंगी। फिलहाल, बसपा के लिए राह मुश्किल दिख रही है, लेकिन मायावती अभी भी राजनीति की मंझी हुई खिलाड़ी हैं और अगर वह सही दांव खेलती हैं, तो बसपा का भविष्य बचाया जा सकता है।

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