नागा साधुओं के जीवन में भस्म का धार्मिक, आध्यात्मिक और शारीरिक महत्व बहुत गहरा है। यह उन्हें तपस्या में सहायता करती है और आत्मिक शक्ति प्रदान करती है।

नागा साधु, भगवान शिव के परम भक्त होते हैं और अपने शरीर पर भस्म या ‘भभूत’ लगाते हैं। यह भस्म उन्हें नकारात्मक ऊर्जा से बचाने और मानसिक शांति प्रदान करने का काम करती है। शिवभक्त होने के कारण, वे चिता की राख या धूनी की राख का उपयोग करते हैं, जो पवित्रता और आत्मिक शक्ति का प्रतीक मानी जाती है। धार्मिक दृष्टिकोण से, यह भस्म सांसारिक बंधनों से मुक्ति का प्रतीक है और साधु जीवन के प्रति उनके समर्पण को दर्शाती है।

पीपल, पाखड़, रसाला से बना भस्म
भस्म बनाने की प्रक्रिया बेहद जटिल होती है। हवन कुंड में पीपल, पाखड़, रसाला, बेलपत्र, केला और गाय के गोबर को जलाकर राख तैयार की जाती है। फिर इसे छानकर कच्चे दूध में लड्डू बनाकर सात बार अग्नि में तपाया जाता है और दूध से बुझाया जाता है। इस प्रक्रिया से भस्म को शुद्ध और पवित्र बनाया जाता है। यही पवित्र भस्म नागा साधु अपने शरीर पर लगाते हैं।

भस्म से मिलता है शारीरिक लाभ
नागा साधु ठंड के मौसम में भी निर्वस्त्र रहते हैं और उन्हें ठंड नहीं लगती, इसका मुख्य कारण भस्म है। भस्म शरीर के तापमान को नियंत्रित करती है और एक इंसुलेटर की तरह काम करती है। इसमें कैल्शियम, पोटैशियम और फास्फोरस जैसे खनिज होते हैं, जो शरीर को ठंड और गर्मी से बचाने में मदद करते हैं। यह साधुओं को कठोर मौसम में भी स्थिरता प्रदान करती है।

भस्म और साधना का गहरा संबंध
भस्म केवल शरीर को गर्म रखने का साधन नहीं है, बल्कि यह साधु जीवन और तपस्या का महत्वपूर्ण हिस्सा है। भस्म शरीर को शुद्ध करती है और आत्मिक शक्ति को बढ़ाती है। यह साधुओं को मानसिक शांति, ध्यान में स्थिरता और गहरी साधना में मदद करती है। भस्म के माध्यम से वे अपने भौतिक बंधनों से मुक्त होकर आत्मिक साधना में लीन हो जाते हैं।

नागा साधुओं का रहन-सहन
नागा साधु अपने शरीर पर भस्म लगाकर निर्वस्त्र रहते हैं। उनके पास त्रिशूल, तलवार और भाला जैसे हथियार होते हैं, जो उनकी आत्मरक्षा और धर्म रक्षा का प्रतीक हैं। बड़ी-बड़ी जटाएं और त्रिपुंड तिलक उनके विशिष्ट रूप को दर्शाते हैं। भस्म के माध्यम से वे अपने आप को सांसारिक मोह-माया से मुक्त कर भगवान शिव की भक्ति में लीन रहते हैं।

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