Mathura: फाइलों में दफन ज़िंदगी की दास्तान: इंसाफ ने दी दस्तक... मौत के बाद
- Rishabh Chhabra
- 07 Apr, 2025
उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले से एक दिल दहला देने वाली कहानी सामने आई है, जिसने सिस्टम की संवेदनहीनता को उजागर कर दिया है. यहां 98 साल की बुज़ुर्ग महिला विद्या देवी ने अपने जीवन के अंतिम 29 साल खुद को ज़िंदा साबित करने और पुश्तैनी ज़मीन को वापस पाने के लिए संघर्ष में बिताए. लेकिन अफसोस, यह लड़ाई उनकी मौत के बाद ही रंग लाई.
पिता की ज़मीन, बेटी के नाम वसीयत
यह मामला 1975 में शुरू हुआ, जब विद्या देवी के पिता निद्धा सिंह ने 12.45 एकड़ ज़मीन की वसीयत अपनी बेटी के नाम कर दी थी. लगभग डेढ़ साल बाद उनकी मृत्यु हो गई. विद्या देवी उस समय अलीगढ़ में अपने ससुराल में रह रही थीं.
फर्जीवाड़े की साजिश
करीब 20 साल बाद, 1996 में मायके पक्ष के कुछ रिश्तेदारों ने राजस्व विभाग के कर्मियों से मिलकर एक बड़ी साजिश रची. उन्होंने दस्तावेजों में विद्या देवी को मृत और उनके पिता निद्धा सिंह को जीवित दिखा दिया. इसके बाद एक फर्जी वसीयत तैयार कर 19 मई 1996 को ज़मीन दिनेश, सुरेश और ओमप्रकाश के नाम करवा दी गई.
जिंदा साबित करने की जद्दोजहद
विद्या देवी को जब इस धोखाधड़ी की जानकारी मिली, तो उन्होंने कानूनी लड़ाई की शुरुआत की. वे बार-बार अलीगढ़ से मथुरा आतीं, अधिकारियों से मिलतीं, खुद के जिंदा होने के दस्तावेज पेश करतीं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती. डीएम, एसपी, थाने और तहसील—किसी ने भी उन्हें न्याय नहीं दिया.
महिला आयोग के दखल के बाद दर्ज हुई FIR
करीब तीन दशक बाद, 2025 में महिला आयोग और उच्चाधिकारियों के हस्तक्षेप के बाद आखिरकार कार्रवाई हुई. विद्या देवी के बेटे सुनील द्वारा दिए गए प्रार्थना पत्र के आधार पर 18 फरवरी 2025 को थाना सुरीर में एफआईआर दर्ज की गई. तब तक ज़मीन की कीमत 19 करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी थी.
मौत के बाद मिली इंसाफ की पहली किरण
अपने अस्तित्व के लिए लड़ती विद्या देवी 98 साल की उम्र में 18 मार्च को अलीगढ़ के बाढ़ोन गांव में इस दुनिया को अलविदा कह गईं. दुखद यह है कि उनकी मौत के बाद ही सिस्टम की आंखें खुलीं. 15 दिन बाद पुलिस ने दो आरोपियों दिनेश और सुरेश को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है. तीसरे आरोपी ओमप्रकाश की तलाश अभी जारी है.
सवालों के घेरे में सिस्टम
विद्या देवी की कहानी सिर्फ एक महिला की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की असफलता की कहानी है जो न्याय देने के नाम पर सालों तक आंखें मूंदे रही. यह मामला बताता है कि सिस्टम की नींद तब खुलती है, जब इंसान की ज़िंदगी खत्म हो चुकी होती है.
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