Greator Noida: 43 साल सेवा के बाद भी विभाग कर रहा अनदेखी, इतने सालों का वेतन कर दिया गायब, रिटायर्ड पोस्टमैन न्याय को तरसा!

- Rishabh Chhabra
- 11 Jul, 2025
43 साल सेवा के बाद भी दनकौर के पोस्टमैन राजेंद्र शर्मा को 6 साल का वेतन नहीं दिया गया है। जिसको लेकर विभागीय टालमटोल से परेशान होकर उन्होंने संचार मंत्रालय से शिकायत की है।
सरकारी सेवा में जीवन के चार दशक देने के बाद भी अगर कोई कर्मचारी अपने हक के लिए सालों तक दर-दर भटके, तो यह व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। ग्रेटर नोएडा के दनकौर क्षेत्र के रहने वाले राजेंद्र प्रसाद शर्मा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जो 43 सालों तक ग्रामीण डाक सेवक के तौर पर ईमानदारी से अपनी ड्यूटी निभाते रहे, लेकिन सेवानिवृत्ति के 6 साल बाद भी उन्हें उनका पूरा वेतन नहीं मिल पाया है।
साल 2019 में सेवानिवृत्त हुए राजेंद्र प्रसाद शर्मा
राजेंद्र प्रसाद शर्मा ने बताया कि उन्होंने दनकौर के डाकघर में सालों तक निष्ठा से काम किया। वह साल 2019 में सेवानिवृत्त हुए। सेवा के अंतिम वर्षों में, यानी फरवरी 2012 से लेकर 2019 तक, उन्हें विभागीय अधिकारियों के आदेश पर टाउन पोस्टमैन का अतिरिक्त कार्य भी सौंपा गया। इस अतिरिक्त जिम्मेदारी के लिए उन्हें केवल पहले दो साल का वेतन मिला, लेकिन इसके बाद विभाग ने भुगतान करना ही बंद कर दिया।
साल 2014 से लगा रहे अधिकारियों से गुहार
राजेंद्र प्रसाद शर्मा बताते हैं कि उन्होंने साल 2014 से लगातार अधिकारियों से गुहार लगाई, लेकिन हर बार उन्हें टाल दिया गया। कभी कहा गया कि फाइल आगे भेजी जा रही है, तो कभी विभागीय स्तर पर उलझा दिया गया। यह मामला अब दो जिलों के बीच फुटबॉल बनकर रह गया है। पहले जहां दनकौर डाकघर बुलंदशहर जिले के अधीन आता था, वहीं अब वह गौतमबुद्ध नगर जिले के अंतर्गत आता है। अब बुलंदशहर के अधिकारी मामले को गौतमबुद्ध नगर पर टालते हैं और गौतमबुद्ध नगर के अधिकारी इसे बुलंदशहर की जिम्मेदारी बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।
अब संचार मंत्रालय से लगाई आस
अधिकारियों की ओर से कोई सुनवाई ना किए जाने पर अब 6 साल से ज्यादा समय से भटक रहे राजेंद्र शर्मा ने संचार मंत्रालय को शिकायत भेजी है। उन्हें उम्मीद है कि शायद मंत्रालय इस मामले को गंभीरता से ले और उन्हें उनका वाजिब हक दिलाए। उम्र के इस पड़ाव में जब उन्हें आराम और सम्मान मिलना चाहिए, वे आज भी कागज़ों के बोझ तले दबे हुए हैं।
राजेंद्र प्रसाद शर्मा की यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारी सरकारी व्यवस्था वाकई में रिटायर्ड कर्मचारियों को उनका सम्मान और अधिकार दिला पा रही है? और अगर नहीं, तो फिर सुधार कब होंगे?
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