भारत में हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले एमएस स्वामीनाथन जिन्हें लोग ग्रेन गुरु से लेकर प्यार से SMS भी कहते थे. 98 साल की उम्र में उनका निधन हो गया था, यह देश को अपूर्णीय क्षति थी. पूरी दुनिया उन्हें भारत में हरित क्रांति के वास्तुकार के रूप में देखती है. उन्होंने देश के हर आम व्यक्त‍ि के लिए हित के काम किए. उन्होंने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया. स्वामीनाथन जितना बीजों के जीनोम के बारे में समझते थे, उतना ही वो किसानों की जरूरतों के प्रति भी जागरूक थे.

खेती को वो पूरी तरह समझते थे

खेती की जटिलताओं को समझने की उनकी यही क्षमता उन्हें एक असाधारण व्यक्त‍ित्व बनाती है. ये साठ के दशक के मध्य की बात है, जब भारत को लगातार सूखे का सामना करना पड़ा था. ऐसे कठ‍िन वक्त में किसानों को दूसरी फसल लेने के लिए प्रेरित करना एक चुनौती थी. ऐसे में विश्व स्तर पर कृषि अर्थशास्त्री अपने लोगों को सर्वाइवल के लिए पर्याप्त अनाज उगाने के भारत के प्रयासों को नकार रहे थे. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री योगिंदर के.अलघ ने अपनी किताब में इसका जिक्र किया है कि उस दौर में फसल के पैटर्न और पैदावार पर अनुभव से तैयार डेटा और फीडबैक इकट्ठा करने के काम के लिए सरकार द्वारा चुने गए सभी जिला कलेक्टरों को ऐसी जानकारी साझा करने के लिए मैंने भी लिखा था. यहां तक कि जिन्होंने पहले कभी खेती नहीं की थी, उन्हें भी स्वामीनाथन के मार्गदर्शन से आत्मविश्वास मिला. उनमें मैं भी शामिल था.

पंजाब-हरियाणा की पहचान की

योगिंदर के.अलघ के अनुसार जिले-वार डेटा इकट्ठा करने की कवायद से हमें अच्छी कृषि वृद्धि दिखाने वाले जिलों की हरित क्रांति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आवश्यक प्रयासों को समझने में मदद मिली. व्यापक मानचित्र तैयार करने के दौरान स्वामीनाथन हमारे पीछे खड़े रहे. उपलब्ध सिंचाई सुविधाओं और व्यवहारिक जरूरतों पर उनकी अंतर्दृष्टि बहुत काम आई और हमें पंजाब और हरियाणा पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिली.

मौसम और मिट्टी के अनुसार बनाया पैटर्न

स्वामीनाथन टिकाऊ और विविध कृषि के लिए काम करने वालों के लिए ताकत का एक मजबूत स्तंभ रहे हैं. हालांकि, स्वामीनाथन आश्वस्त थे कि पंजाब और हरियाणा के मॉडल को हर जगह दोहराया नहीं जा सकता है. उन्होंने यह भी महसूस किया कि देश के अन्य हिस्सों में अलग-अलग फसल पैटर्न और मॉडल की आवश्यकता है. बाद में, यह उनका ही दृष्टिकोण था जिसने देश में स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) का एक नेटवर्क बनाने में मदद की, कॉर्पोरेट्स की भागीदारी के लिए दरवाजे खोले और फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित किया.

मिले हैं ये सम्माान

एमएस स्वामीनाथन को 1967 में ‘पद्म श्री’, 1972 में ‘पद्म भूषण’ और 1989 में ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया जा चुका है. स्वामीनाथन सिर्फ भारत ही नहीं दुनियाभर में सराहे जाते थे. उन्हें 84 बार डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया जा चुका था. उन्हें मिली 84 डॉक्टरेट की उपाधि में से 24 उपाधियां अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने दी थीं. “भारत की हरित क्रांति के जनक” के रूप में प्रतिष्ठित, डॉ. स्वामीनाथन के अग्रणी कार्य ने न केवल देश के कृषि परिदृश्य को नया आकार दिया है, बल्कि भोजन की कमी से लड़ने के लिए वैज्ञानिक उत्कृष्टता और समर्पण का एक स्थायी उदाहरण भी स्थापित किया है।

“हरित क्रांति” के पिता के तौर पर बनी पहचान

7 अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम में जन्मे डॉ. स्वामीनाथन की कृषि महानता की यात्रा जल्दी शुरू हुई। मद्रास कृषि कॉलेज से कृषि विज्ञान की डिग्री के साथ, उन्होंने प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में आगे की पढ़ाई की, जहां आनुवंशिकी और पौधों के प्रजनन में उनकी रुचि जागृत हुई। कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन को ‘फादर ऑफ ग्रीन रेवोल्यूशन इन इंडिया’ यानी ‘हरित क्रांति के पिता’ भी कहा जाता है के कुम्भकोणम में जन्मे एमएस स्वामीनाथन पौधों के जेनेटिक वैज्ञानिक थे. उन्होंने 1966 में मैक्सिको के बीजों को पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ मिश्रित करके उच्च उत्पादकता वाले गेहूं के संकर बीज विकसित किए थे. भारतीय कृषि पर डॉ. स्वामीनाथन का परिवर्तनकारी प्रभाव 1960 के दशक में उभरना शुरू हुआ जब उन्होंने उच्च उपज देने वाली फसल किस्मों की शुरूआत की वकालत की। उनका दूरदर्शी दृष्टिकोण उस समय भारत में हरित क्रांति को आगे बढ़ाने में सहायक था जब देश अभी भी गरीबी और सामाजिक सुरक्षा की कमी से जूझ रहा था।

भारत को खाद्य आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ाया आगे

समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता को पहचानते हुए, उन्होंने गेहूं और चावल की ऐसी किस्में विकसित करने के लिए अथक प्रयास किया जो न केवल अधिक उपज देने वाली थीं, बल्कि रोग प्रतिरोधी भी थीं और भारतीय मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों के लिए उपयुक्त थीं। डॉ. स्वामीनाथन के प्रयासों का प्रभाव किसी क्रांतिकारी से कम नहीं था। भारत का खाद्य उत्पादन आसमान छू गया, और देश भोजन की कमी की स्थिति से खाद्य आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ गया। उनके काम ने न केवल संभावित अकाल को टाला, बल्कि अनगिनत कृषक समुदायों की आर्थिक स्थिति को भी ऊंचा उठाया। अपने वैज्ञानिक योगदान के अलावा, डॉ. स्वामीनाथन ने हमेशा टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल कृषि पद्धतियों के महत्व पर जोर दिया है। उन्होंने माना कि हालाँकि उत्पादकता बढ़ाना महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे दीर्घकालिक पर्यावरणीय क्षरण की कीमत पर नहीं आना चाहिए। टिकाऊ कृषि के लिए उनकी वकालत विश्व स्तर पर गूंजी है।

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