Rooh Afza का ये सच जान आपका दिल भी गदगद हो जाएगा, 'शरबत-ए-मोहब्बत' का दशकों से है नाता !

- Rishabh Chhabra
- 17 Apr, 2025
नई दिल्ली: एक शरबत, जो सिर्फ मिठास नहीं बल्कि एक सदी से भी ज़्यादा पुरानी विरासत लिए हुए है — रूह अफ़ज़ा। हाल ही में योगगुरु बाबा रामदेव के एक बयान के बाद यह ठंडक देने वाला शरबत गर्म बहस का मुद्दा बन गया है। बाबा ने सीधे तौर पर नाम न लेते हुए इसके सेवन करने वालों को चेताया, जिससे सोशल मीडिया से लेकर सियासी गलियारों तक इसकी चर्चा तेज़ हो गई है। इस विवाद ने एक बार फिर उस शख्स को सुर्खियों में ला दिया है, जिसने 1907 में दिल्ली की तपती गर्मियों में इस शरबत की नींव रखी थी — हकीम हफीज़ अब्दुल मजीद।
1907 की गर्मी में डिहाइड्रेशन से जूझते मरीजों के इलाज के लिए जब हकीम मजीद ने फलों, गुलाब, केवड़ा, खसखस और जड़ी-बूटियों से एक खास सिरप तैयार किया, तब किसी ने नहीं सोचा था कि यह ईजाद एक दिन अंतरराष्ट्रीय पहचान बन जाएगी। नाम रखा गया — रूह अफ़ज़ा। मतलब: आत्मा को ताज़गी देने वाला।
हकीम मजीद के निधन (1922) के बाद, मात्र 14 साल की उम्र में उनके बेटे हकीम अब्दुल हमीद ने मां राबिया बेगम के साथ हमदर्द की बागडोर संभाली। यही हकीम अब्दुल हमीद आगे चलकर पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मान पाए और हमदर्द को एक घरेलू नाम बना दिया। उनके छोटे भाई मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान जाकर वहां रूह अफ़ज़ा का उत्पादन शुरू किया। 1971 में बांग्लादेश बना तो वहां भी यह शरबत घर-घर पहुंच गया। आज रूह अफ़ज़ा 40 से ज़्यादा देशों में मिलता है।
लेकिन रूह अफ़ज़ा महज एक शरबत नहीं, एक मिशन भी रहा है। हकीम अब्दुल हमीद ने कारोबार से मिले मुनाफे का इस्तेमाल शिक्षा और समाज सुधार में किया। दिल्ली का संगम विहार, जो कभी सुनसान जंगल था, वहीं उन्होंने हमदर्द एजुकेशन सोसाइटी की नींव रखी। तालीमाबाद नामक कैंपस से शुरू हुआ यह सफर अब स्कूल, कोचिंग और स्टडी सर्कल्स तक पहुंच चुका है। मुस्लिम समाज की तालीम और तरक्की के लिए उन्होंने राबिया गर्ल्स स्कूल और फार्मेसी कॉलेज जैसी संस्थाओं की भी स्थापना की।
हकीम अब्दुल हमीद की जिंदगी सादगी और सेवा का उदाहरण रही। उनकी विनम्रता और समाजसेवा के चर्चे प्रधानमंत्री से लेकर आमजन तक फैले। जामिया हमदर्द के एक दीक्षांत समारोह में जब एपीजे अब्दुल कलाम ने मजरूह सुल्तानपुरी का शेर दोहराया – "मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग मिलते गए और कारवां बन गया" – तो वो लम्हा हकीम हमीद की पूरी यात्रा का सार बन गया।
आज जब एक बयान ने रूह अफ़ज़ा को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है, तब उसका इतिहास यह बताता है कि यह शरबत सिर्फ स्वाद नहीं, एक सोच, एक सेवा और एक सद्भाव की मिसाल है।
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