बकरीद क्यों मनाई जाती है, इस दिन कुर्बानी देने का क्या है महत्व?

- Nownoida editor1
- 07 Jun, 2025
आज पूरे देश में ईद-उल अजहा (बकरीद) का त्योहार धूमधाम से मनाया जा रहा है। यह त्योहार त्याग और इंसानियत का प्रतीक माना जाता है। इस्लाम धर्म में इसे 'कुर्बानी का त्योहार' भी कहा जाता है। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक, हर साल की बकरीद की तारीख चांद की स्थिति पर आधारित होती है। ज़ुलहिज्जा की 10वीं तारीख को ईद-उल-अजहा मनाई जाती है, जो कि रमजान खत्म होने के 70 दिन बाद आता है। ऐसे में आइए जानते हैं कि बकरीद क्यों मनाया जाता है और इस दिन कुर्बानी की का क्या महत्व है?
ईद-उल-अजहा मनाने की कहानी
ईद-उल-अजहा का इतिहास हजरत इब्राहिम (अलैहि सलाम) की अल्लाह के प्रति आज्ञाकारिता और विश्वास से जुड़ा है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, हज़रत इब्राहिम को अल्लाह ने सपना दिखाया कि वे अपने इकलौते प्यारे बेटे हज़रत इस्माईल को उसकी राह में कुर्बान कर दें। यह उनके समर्पण की परीक्षा थी। इब्राहिम ने बिना किसी संकोच के इस आदेश का पालन किया और अपने बेटे को कुर्बानी के लिए तैयार हो गए। इब्राहिम ने अपनी वीबी बीवी हाजरा से ये बात बताई। उन्होंने खुदा के हुक्म को पूरा करने के लिए अपने इकलौते बेटे का नहलाकर साफ कपड़े पहनाकर अपने शौहर (हजरत इब्राहीम अस्स्लाम) के हवाले कर दिया। बेटे इस्माइल ने भी खुदा के हुक्म को पूरा करने के लिए इंकार नहीं किया। लेकिन जैसे ही कुर्बानी देने का प्रयास किया, अल्लाह ने करिश्मा कर दिया। उनके बेटे की जगह एक दुम्बा (भेड़/मेढ़ा) रख दिया। यह घटना इस बात का प्रतीक बन गई कि ईश्वर नीयत और समर्पण देखता है, बलिदान की भावना देखता है।
क्यों दी जाती है कुर्बानी
ईद-उल-अजहा हजरत इब्राहिम की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है। इस दिन इस्लाम धर्म के लोग किसी जानवर की कुर्बानी देते हैं। इस्लाम में सिर्फ हलाल के तरीके से कमाए हुए पैसों से ही कुर्बानी जायज मानी जाती है। कुर्बानी का गोश्त अकेले अपने परिवार के लिए नहीं रख सकता है, इसके तीन हिस्से किए जाते हैं। पहला हिस्सा गरीबों के लिए होता है और दूसरा दोस्त- रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा अपने घर के लिए होता है।
कुर्बानी के नियम
जिनका धन और संपत्ति का पूरा माप साहेबे नेशाब में आता है, उनके लिए कुर्बानी अति आवश्यक है। जो कि साढ़े सात तोला सोना या साढ़े बावन तोला चांदी की श्रेणी में आता है। यदि पति और पत्नी दोनों इस श्रेणी में आते हैं तो दोनों पर कुर्बानी वाजिब होती है। अगर माता-पिता साहेबे नेशाब नहीं हैं तो उन पर कुर्बानी का नियम लागू नहीं होता। कुर्बानी सबसे पहले जीवित व्यक्ति के नाम से की जाती है और उसके बाद मरे हुए परिजनों के नाम से होती है।
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