प्रयागराज को तीरथपति क्यों कहा जाता है. कहते हैं कि इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहां माधव रूप में विराजमान हैं. मान्यता है कि यहां भगवान के 12 स्वरूप विध्यमान हैं. प्रयागराज गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम स्थल है. इसलिए इस शहर को तीर्थराज या त्रिवेणी के नाम से भी जाना जाता है.

प्रयागराज में बनता है कुंभ, अर्धकुंभ और महाकुंभ का संयोग
प्रयागराज देश के 4 कुंभ पीठों में से इकलौता ऐसा पीठ है. जहां पर कुंभ, अर्धकुंभ के साथ ही साथ महाकुंभ का संयोग बनता है. इस दिव्य संयोग में शामिल होने के लिए पूरे देश दुनिया से करोड़ों लोग यहां पर आते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी महाकुंभ की शुरुआत से पहले प्रयागराज जाकर कुंभ कलश की पूजा-अर्चना की. आइए आज हम जानते हैं महाकुंभ की धरती से जुड़ी एक ऐसी परंपरा की कथा, जिसके बिना महाकुंभ बिल्कुल अधूरा है. वो कथा है सनातन की धर्म ध्वजा के वाहकों की इसके रक्षकों की. ये कथा है महाकुंभ में सबसे खास माने जाने वाले अखाड़ों की.

युगों-युगों से चले आ रहे इसी दिव्य जमावड़े को कहते हैं कुंभ
हमारे सौरमंडल में जब सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का योग बनता है. तब सभी दैवीय शक्तियां, धरती के सभी तीर्थ, सभी ऋषि, सभी महाऋषि गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम घाट की ओर खिंचे चले आते हैं. युगों-युगों से चले आ रहे इसी दिव्य जमावड़े को कुंभ कहा जाता हैं. कुंभ के खगोलीय योग कुछ इस तरह से है-

कुंभ में पधारते हैं 14 सनातनी अखाड़े
समुद्र मंथन से निकले विष को पीकर भगवान शिव ने तो दुनिया को बचाया और खुद नीलकंठ हो गए. मगर इस दौरान अमृत कलश से जो बूंदे गिरी, उसका जश्न शहस्त्राब्दियों बाद भी कुछ इस तरह से मनाया जाता है. भगवान शिव और सनातन की धर्मध्वजा लिए इस कुंभ में पधारते हैं 14 सनातनी अखाड़े. महाकुंभ की धरती प्रयागराज पर सनातन की धर्म ध्वजा लहराने लगी है. सभी सनातनी अखाड़ों के शिविर लगाए जा चुके हैं. बस अब इंतजार है तो केवल 13 जनवरी को महाकुंभ का दिव्य शंख बजने का.

महाकुंभ का नारा ‘यतो धर्मस्ततो जय’
महाकुंभ का नारा है ‘यतो धर्मस्ततो जय’ महाकुंभ में धर्मध्वजा का यही सार श्लोक है. भारत देश में न्याय व्यस्था की सबसे ऊंची अदालत मानी जानी वाली सुप्रीम कोर्ट के भी प्रतीक चिन्ह पर ये अंकित है. इस श्लोक का अर्थ है, जहां धर्म है, वहां विजय निश्चित होती है. धर्म के इसी मानवीय अर्थ के साथ महाकुंभ में अखाड़ों की धर्म ध्वजाएं लहराती हैं. आवाहन अखाड़े के श्रीमहंत भारद्वाज गिरि की मानें तो धर्म ध्वजा धर्म का प्रतीक होती है. ऊंची ध्वजा से ही पता चलता है कि वहां कोई है और वहां खाना पानी सेवा की सुविधा उपलब्ध है. जब आस है, तो सांसें अपने आप उम्मीद से बढ़ जाती हैं.

आवाहन अखाड़ा देश के सबसे पुराने अखाड़ों में से एक
भारद्वाज गिरि का कहना है कि अखाड़ों की सनातनी परंपरा में धर्म का मानवीय मूल्य यही है. जब तक आस है, तब तक सांस है. वो आवाहन अखाड़े के श्री महंत, यानी कि मुखिया हैं. वो देश के सबसे पुराने अखाड़ों में से एक है. महाकुंभ में आवाहन अखाड़े के साथ श्री पंचायती निरंजनी अखाड़े की भी धर्म ध्वजा महाकुंभ के आसमान में लहराने लगी है.

धर्म ध्वजा मानी जाती है अखाड़ों की पहचान
ये धर्म ध्वजा अखाड़ों की पहचान मानी जाती है. इस ध्वजा को ही अखाड़े अपने गुरु का प्रतीक मानते हैं. ध्वजा का वैदिक अर्थ होता है निरंतर गमनशील. अखाड़ों की ध्वजा उनके मान, शक्ति और इष्टदेव का प्रतीक होती है. हर अखाड़े की धर्म ध्वजा 52 हाथ लंबी होती है. ये चार दिशाओं में 4 तानियों पर खड़ी रहती है. हर अखाड़े के ध्वज का रंग अलग-अलग होता है, किसी में कई रंग भी होते हैं लेकिन सभी ध्वजाओं में 52 बंध अनिवार्य होते हैं. अखाड़ों के संन्यासी अपनी धर्म ध्वजा को कभी झुकने, गिरने नहीं देते हैं. इतिहास बताता है कि सन्यासी इसकी रक्षा के लिए अपनी जान तक पर खेल जाते हैं. इसीलिए आखाड़ों की रहस्यमयी दुनिया को समझने से पहले धर्मध्वजा की अहमियत को जानना जरूरी है. धऱती पर जबसे कुंभ की ज्ञात परंपरा है, तभी से इस महामेले में अखाड़ों का भी स्थान बेहद खास रहा है.

संन्यासी शास्त्रों के ज्ञाता और शस्त्रों के पारंगत
संन्यासी जो शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं, वे शस्त्र में भी उतने ही पारंगत हैं! आदि शंकराचार्य के सेवक आखिर कैसे सनातन के रक्षक बन गए? आज भले ही अखाड़ों के संन्यासी वैसे सशस्त्र नहीं दिखाई देते. जैसा कि इनके इतिहास में दिखाया जाता है लेकिन संन्यासी के रूप में इनकी मूल प्रकृति अभी भी वही है. अखाड़ों से जुड़े इतिहास का ये सिलसिला हमें 400 ईसा पूर्व के इतिहास की तरफ खींचकर ले जाता है. जो सनातन की धर्म ध्वजा के सबसे बड़े वाहक आदि शंकराचार्य का सक्रिय काल है. दरअसल अखाड़ों के निर्माण का श्रेय आदि शंकराचार्य को ही जाता है.

508 ईसा पूर्व में हुआ आदि शंकराचार्य का जन्म
संवत काल गणना के मुताबिक आदि शंकराचार्य का जन्म 508 ईसा पूर्व में हुआ था. आदि शंकराचार्य ने 4 दिशाओं में 4 सनातनी मठ और दसनामी संप्रदाय बनाए थे. अखाड़ों का निर्माण इन्हीं मठों और सनातनी संप्रदाय की रक्षा के लिए किया गया था. अगर आदि शंकराचार्य का सक्रिय काल देखा जाए तो वो गौतम बुद्ध और जैन धर्म के संस्थापक महावीर के समकालीन हैं. इस दौर में जैन और बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रचार प्रसार के बीच शंकराचार्य ने सनातन की धर्म ध्वजा बुलंद की थी.

शुरुआत में केवल 4 अखाड़े ही बने थे
उस दौर की जरूरत के अनुसार धर्म रक्षा के लिए संन्यासियों के एक खास समूह को सशस्त्र ट्रेनिंग दी गई थी. ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर धर्म रक्षा के लिए इस सशस्त्र समूह ने कई युद्ध भी लड़े थे. ईसा पूर्व के दौर में इन्हें अखाड़ा के नाम से नहीं जाता था क्योंकि उस दौर में अखाड़ा शब्द चलन में ही नहीं था. उस दौर में संन्यासियों के सशस्त्र समूह को जत्था या पीर कहा जाता था. अखाड़ा शब्द का इस्तेमाल तो मध्य युग में करना शुरु हुआ. जब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत पर हमले शुरू कर दिए. शुरुआत में केवल 4 अखाड़ों का ही निर्माण किया गया था लेकिन बाद में अलग-अलग मतों के आधार पर 13 अखाड़े बन गए. 2018 में 14वां अखाड़ा किन्नरों का बना. अखाड़ों को मुख्य तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जाता है. इनमें पहला है शैव मत, जिसमें 7 अखाड़े आते हैं. दूसरा है वैष्णव मत, जिसमें 3 अखाड़े आते हैं और तीसरा है उदासीन पंथ, जिसमें तीन अखाड़े आते हैं. 14वां अखाड़ा 2018 में जूना अखाड़े ने किन्नरों को प्रतिनिधित्व देने के मकसद से बनाया गया था. जो 2019 के अर्धकुंभ से चारों पीठों में शिरकत कर रहा है. इस बार के कुंभ में भी इन्हीं 14 अखाड़ों का जयघोष सुनाई देने वाला है.

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