चुनाव आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मंगलवार को दो राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है. इसके साथ ही 48 विधानसभा सीटों और दो लोकसभा सीटों पर उपचुनाव की भी घोषणा हो गई है. जिनमें उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटें भी शामिल हैं. इन सीटों पर 13 नवंबर को वोटिंग होगी. फिलहाल अभी मिल्कीपुर सीट पर वोटिंग का ऐलान नहीं हुआ है. यूपी की जिन 10 सीटों पर उपचुनाव होना था, उनमें मैनपुरी की करहल, कानपुर की सीसामऊ, प्रयागराज की फूलपुर, अंबेडकरनगर की कटेहरी, मिर्जापुर की मझवां, अयोध्या की मिल्कीपुर, गाजियाबाद सदर, अलीगढ़ की खैर, मुजफ्फरनगर की मीरापुर और मुरादाबाद की कुंदरकी सीट शामिल हैं.
बीजेपी के सामने हैट्रिक लगाने की चुनौती
वहीं दिल्ली से सटी गाजियाबाद विधानसभा सीट के उपचुनाव पर भी सबकी नजरें टिकी हुई हैं. शहरी और ग्रामीण इलाकों को समाहित करती इस सीट पर भाजपा के सामने हैट्रिक लगाने की चुनौती है. वहीं भाजपा की जीत का क्रम तोड़ने के लिए विपक्ष लोकसभा चुनाव में हिट हुए पीडीए के समीकरण के भरोसे बैठी है. गाजियाबाद से विधायक अतुल गर्ग को भाजपा ने इस बार लोकसभा चुनाव का टिकट दिया था. वह जीतकर संसद पहुंच गए. इसलिए इस सीट पर उपचुनाव होगा.
आजादी के बाद शुरुआती दो चुनावों में कांग्रेस की जीत
आजादी के बाद हुए शुरुआती दो चुनावों में कांग्रेस ने जीत दर्ज की तो अगले तीन चुनावों में प्यारे लाल पार्टी बदलकर विधायक बनते रहे. प्यारे लाल ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया. वहीं इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस विरोधी लहर का असर यहां भी दिखा. लोगों ने जनता पार्टी के राजेंद्र चौधरी के सिर जीत का सेहरा सजाया. राजेंद्र चौधरी इस समय सपा के राष्ट्रीय सचिव और प्रवक्ता है. हालांकि इसके बाद कांग्रेस ने वापसी की और अगले 3 चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी सुरेंद्र कुमार मुन्नी ने जीत की हैट्रिक लगाई.
90 के दशक में कमंडल और मंडल ने बदला राजनीतिक गणित
90 के दशक में कमंडल और मंडल के मुद्दे ने यूपी की राजनीतिक तस्वीर पर भी असर डाला. कमंडल ने भाजपा को नई ताकत दी, तो मंडल ने जाति आधारित क्षेत्रीय दलों के लिए मजबूत जमीन तैयार की. इसका असर यह रहा कि 1991 से 96 तक भाजपा के बालेश्वर त्यागी ने जीत की हैट्रिक लगाई. 2002 में इस सीट पर आखिरी बार कांग्रेस को जीत नसीब हुई और सुरेंद्र प्रकाश गोयल विधायक बने. कांग्रेस ने उन्हें 2004 में लोकसभा का टिकट दे दिया. गोयल को यहां भी जीत मिली और विधानसभा सीट खाली करनी पड़ी. सपा ने उपचुनाव में कांग्रेस के ही पुराने चेहरे रहे सुरेंद्र कुमार मुन्नी पर दांव लगाया और उन्होंने पहली बार यहां साइकल दौड़ा दी. 2007 में जीत फिर भाजपा के हाथ आई लेकिन 2012 में जनता ने बसपा को भी नुमाइंदगी का मौका दिया. इस चुनाव में करीब 12 हजार वोटों से हारे अतुल गर्ग ने अगले चुनाव में हिसाब बराबर कर लिया. करीब 70 हजार वोटों से जीत हासिल कर उन्होंने भाजपा के खाते में सीट डाल दी. पिछले विधानसभा चुनाव में उनका जीत का अंतर बढ़कर 1.06 लाख वोट हो गया.
ब्राह्मण व वैश्य वोटरों की निर्णायक भूमिका का असर
गाजियाबाद की जनता परिवर्तन और टिकाऊपन दोनों को ही अलग-अलग समय पर तरजीह देती हुई नजर आई है. मुद्दों के साथ सामाजिक समीकरणों को सहेजने की कसरत भी सियासी दलों को करनी पड़ती है. गाजियाबाद विधानसभा में ब्राह्मण, वैश्य व दलित वोटर प्रभावी भूमिका में हैं. मुस्लिम वोटर 50 हजार से अधिक हैं. ब्राह्मण व वैश्य वोटरों की निर्णायक भूमिका का असर यहां की नुमाइंदगी में भी साफ तौर पर देखा जा सकता है. आजादी के बाद तीन मौकों को छोड़कर इस सीट वैश्य या ब्राह्मण चेहरा ही चुनकर विधानसभा पहुंचा है. सपा का भी खाता यहां ब्राह्मण चेहरे ने खोला था जबकि बसपा ने वैश्य पर दांव लगाकर जीत हासिल की थी. इसलिए उम्मीदवारों के चयन में ये गणित एक बार फिर नजर आ सकता है.